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महासमर - धर्म

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :415
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3189
आईएसबीएन :81-7055-300-8

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भीम ने हाथ उठाकर अपने पीछे आते सारे लोगों को रुकने का संकेत किया। रुकने की आज्ञा प्रचारित होती गई और गज, अश्व तथा रथ रुकते चले गये।

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राख्यात कथाओं का पुन:सृजन उन कथाओं का संशोधन अथवा पुनर्लेखन नहीं होता; वह उनका युग-सापेक्ष अनुकूलन मात्र भी नहीं होता। पीपल के बीज से उत्पन्न प्रत्येक वृक्ष पीपल होते हुए भी, स्वयं में एक स्वतंत्र आस्तित्व होता है; वह न किसी का अनुसरण है, न किसी का नया संस्करण ! मौलिक उपन्यास का भी यही सत्य है।

मानवता के शाश्वत प्रश्नों का साक्षात्कार लेखक अपने गली-मुहल्ले, नगर-देश, समाचारपत्रों तथा समाकालीन इतिहास में आबद्ध होकर भी करता है; और मानव सभ्यता तथा संस्कृति की संपूर्ण जातीय स्मृति के सम्मुख बैठकर भी। पौराणिक उपन्यास कार के ‘प्राचीन’ में घिरकर प्रगति के प्रति अंधे हो जाने की संभावना उतनी ही घातक है, जितनी समकालीन लेखक की समसामयिक पत्रकारिता में बंदी हो एक खंड-सत्य को पूर्ण सत्य मानने की मूढ़ता। सृजक साहित्यकार का सत्य अपने काल-खंड का अंग होते हुए भी, खंडों के अतिक्रमण का लक्ष्य लेकर चलता है।

नरेन्द्र कोहली का नया उपन्यास है ‘महासमर’। घटनाएँ तथा पात्र महाभारत से संबद्ध हैं; किंतु यह कृति एक उपन्यास है- आज के एक लेखन का मौलिक सृजन !

धर्म


भीम के हाथ उठाकर अपने पीछे आते सारे लोगों को रुकने का संकेत किया।
रुकने की आज्ञा प्रचारित होती गई और गज, अश्व तथा रथ रुकते चले गये।
‘‘भैया ! खांडवप्रस्थ सामने दिखाई दे रहा है।’’ भीम अपने हाथी से उतरकर युधिष्ठिर के रथ के पास आ गया, ‘‘आपकी आज्ञा हो तो यहीं शिविर स्थापित कर दिया जाए। यहाँ शिविरों तथा रसोई की व्यवस्था हो और हम लोग आस-पास का क्षेत्र देख आएँ।’’
‘‘देखने को है ही क्या ?’’ युधिष्ठिर के कुछ कहने से पहले ही नकुल बोला, ‘‘चारों ओर वन-ही-वन हैं। जहाँ वन नहीं हैं, वहाँ पथरीली पहाड़ियाँ हैं, जिन पर तृण भी नहीं उगता।’’
‘‘नहीं ! ऐसी बात नहीं होनी चाहिए।’’ युधिष्ठिर की वाणी आश्वस्त थी, ‘‘कौरवों की प्राचीन राजधानी है। पुरुरवा, आयु, नहुष तथा ययाति ने यहीं से शासन किया था। यहां हमारी प्राचीन प्रासाद है। उससे लगा खांडवप्रस्थ नगर है, जहाँ हमारी प्रजा निवास करती है।’’
‘‘मुझे तो यहाँ कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा।’’ भीम ने अपनी आँखों पर हथेली की छायी करते हुए दूर तक देखने का अभिनय किया।

‘‘महाराज ! यहाँ शिविर स्थापित करने का तो आदेश दे ही दीजिए।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘आसपास कुछ दर्शनीय है या नहीं, इससे क्या अन्तर पड़ता है।’’
‘‘हाँ !’’ अर्जुन बोला, ‘‘प्रासाद है तो
ठीक है, नहीं तो हमें बनाना है। नगर है तो उसका पुनरुद्धार करना है, नहीं है तो बसाना है। अब रहना तो यहीं है न। महाराज धृतराष्ट्र ने हमें जो राज्य और राजधानी दी है, उसका हम अपमान तो नहीं कर सकते !’’
‘‘अर्जुन ! तुम्हारी वाणी में पितृव्य के प्रति कटुता है...।’’
‘‘मेरे मन में तो उनके प्रति घृणा है।’’ भीम ने युधुष्ठिर की बात काट दी, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि आपके मन में उनके व्यवहार की कोई प्रतिक्रिया होती क्यों नहीं। उन्होंने हमारे विरुद्ध कौन-सा षड्यन्त्र नहीं रचा और तब भी आप चाहते हैं कि अर्जुन की वाणी में पितृव्य के लिए कटुता तक न आए। आप मनुष्य नहीं हैं क्या ?’’

‘‘ज्येष्ठ, मनुष्य तो हैं ही मध्यम ! किन्तु धर्म राज भी हैं। वे अकारण ही धर्मराज नहीं कहलाते।’’ कृष्ण का स्वर इस समय परिहास शून्य ही नहीं पर्याप्त गंभीर भी था, ‘‘उन्होंने अपने ‘स्व’ को जीत लिया। जिस मन में सर्वभूताय प्रेमरूपी ईश्वर होना चाहिए, उसमें वे घृणा को स्थान दें... केवल इसलिए, क्योंकि कुरुराज धृतराष्ट्र के मन में अपने भ्रातुष्पुत्रों के प्रति प्रेम नहीं है। यह तो वैसा ही हुआ कि एक व्यक्ति ने अपने घर में मल बर लिया है और वह मल यदा-कदा दूसरों पर फेंकता रहता है, इसलिए आप भी अपने घर में मल भर लें, ताकि आप भी अपनी सुविधानुसार उस पर मल फेंक सकें।’’
‘‘प्रकृति के नियमों के अनुसार स्वाभाविक तो यही है।’’ भीम ने उत्तर दिया।
‘‘किसी एक का स्वभाव ही तो मानव का धर्म नहीं है। धर्म तो प्रकृति का अतिक्रमण कर आत्मस्थ होकर ही सिद्ध होगा।’’ कृष्ण ने उत्तर दिया, ‘‘साधारण मनुष्य प्रकृति के नियमों का दास होता है मध्यम ! किन्तु असाधारण व्यक्ति का सारा उपक्रम उन नियमों का स्वामी बनने के प्रयत्न में है।’’ कृष्ण ने रुककर भीम को देखा, ‘‘अब तुम महाराज की ओर से शिविर स्थापित करने की घोषणा प्रचारित कर दो और चलो हमारे साथ। मैं तुम्हें तुम्हारा वह प्रासाद और नगर दिखाता हूँ।’’
‘‘तुम इस क्षेत्र से परिचित हो माधव ?’’ अर्जुन ने कुछ आश्चर्य से पूछा।
कृष्ण के चेहरे पर सम्मोहनपूर्ण मुस्कान उभरी, ‘‘धनंजय ! यह क्षेत्र चाहे कौरवों के राज्य के अन्तर्गत माना जाता है, किन्तु यह यमुना के तट पर, गंगा-तट पर नहीं। यमुना हमारी नही है। मथुरा, वृन्दावन, गोकुल... कुछ भी तो यहाँ से दूर नहीं है।’’

वे सब लोग कृष्ण के पीछे-पीछे चल रहे थे। अर्जुन, कृष्ण के सबसे अधिक निकट था। युधिष्ठिर, भीम, तथा बलराम उनके पीछे थे और इस प्रयत्न में थे कि कुंती और द्रौपदी भी उनके साथ-साथ चल सकें। नकुल और सहदेव सबके पीछे थे और खांडवप्रस्थ संबंधित अपनी जानकारी को लेकर विवादों में उलझे हुए थे।
झाड़ियों के बीच से बनी धुँधली पगडंडियों पर कृष्ण के पग बढ़ते जा रहे थे।...यह तो स्पष्ट ही था कि मनुष्य के चरण इन मार्गों पर पड़ते रहते हैं। नहीं तो इन पगडंडियों का अस्तित्व ही न होता। किन्तु, यहाँ न पथ थे, न राजपथ। यहाँ रथों का आवागमन नहीं हो सकता था। दस-दस अश्वों की पक्तियाँ साथ-साथ नहीं चल सकती थीं, यदि पांडवों को यहाँ रहना है तो उन्हें पथ और राजपथों का निर्माण करना होगा। भवनों, हवेलियों, अट्टालिकाओं और प्रासादों का निर्माण करना होगा। जब मनुष्य रहने लगेंगे तो उनकी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए क्या नहीं बनाना पड़ता....जब यादव कुशस्थली पहुँचे थे, तो वहाँ क्या था ? यादवों ने भी तो द्वारका जैसे वैभव शाली नगर का निर्माण किया। प्रत्येक नगर को कोई- न-कोई राजा बसाता ही है, तो पांडव अपने लिए एक नया नगर नहीं बसा सकते क्या ?...
कृष्ण के पग रुक गए। उन्होंने सामने संकेत किया, ‘‘वह है तुम्हारे दुर्ग की प्राचीर ! उसके भीतर ही कौरवों का प्राचीन प्रासाद भी है।’’

सबकी दृष्टि उस लक्ष्य पर टिक गई, किन्तु नयनों के वे सारे युगल प्रसन्नता के स्थान पर आश्चर्य से भर गए थे। उस आश्चर्य में, अपनी अपेक्षा से बहुत कम पाने का विषाद भी था।
‘‘यह प्राचीर !’’ भीम ने निकट जाकर उस दीवार पर अपने पैर से प्रहार किया, ‘‘प्राचीर है यह और वह भी कौरवों के प्राचीन दुर्ग की प्राचीर !’’
प्रहार से दीवार का एक भाग भरभराकर गिर गया। उसमें ढेर सारी मिट्टी थी और पत्थर के नाम पर कुछ छोटे-मोटे कंकर-रोड़े।
‘‘क्या कर रहे हो मध्यम !’’ कृष्ण ने टोका, ‘‘तुम अपने दुर्ग की प्राचीर स्वयं ही ढा दोगे तो रहोगे कहाँ ?’’
‘‘इसमे रहने से अच्छा है कि हम अपने शिविर में ही रहें। वस्त्रों का बना मंडप इससे कहीं सुखद होगा।’’ भीम के स्वर में आक्रोश था।
‘‘भीम ! यह प्राचीन दुर्ग है।’’ युधिष्ठिर का स्वर नम्र और सहज था, ‘‘संभव है उस समय बाहरी प्राचीर ऐसी ही बनाई जाती हो। संभव है उन लोगों को इससे दृढ़ प्राचीर की आवश्यकता ही न होती हो। यह कौरव सम्राटों का दुर्ग है। उसकी सीमारंभ का संकेत ही पर्याप्त है। यह भय तो उन्हें कभी रहा ही नहीं होगा कि कोई उनके दुर्ग के भीतर आकर उन पर आक्रमण करेगा।...’’

‘‘यह भी तो संभव है कि उनके काल में यह प्राचीर इस रूप में रही ही न हो।’’
सहदेव ने अपना विचार प्रकट किया, ‘‘यह तो किसी खंडहर की प्राचीर लगती है।’’
‘‘ठीक है ! ठीक है।’’ भीम जोर से हँसा, ‘‘खंडहर की प्राचीर तो देख ली, अब खंडहर को भी देख लेते हैं। चलो कृष्ण ! आगे बढ़ो।’’
कृष्ण और अर्जुन आगे बढ़ गए तो शेष लोग भी चल पड़े।
युधिष्ठिर अब
भी पहले के ही समान शांत और निर्द्वन्द्व दिखाई पड़ रहे थे, किन्तु भीम के चेहरे पर अब परिहास की एक रेखा भी नहीं थी। उसकी गंभीरता कुछ अवसन्न भी दिखाई दे रही थी। वह थोड़ी देर तो आत्मलीन-सा चलता रहा, किन्तु अधिक समय तक आत्मदमन करना उसके लिए संभव नहीं था।
‘‘माँ ! तुम चलते-चलते थक तो नहीं गईं ?’’
कुन्ती ने चकित दृष्टि से भीम को देखा, इस प्रश्न की आवश्यकता ही कहाँ थी। अभी थोड़ी देर पहले तक तो वह रथ यात्रा कर रही थी। वह चली ही कितनी दूर है ?...
‘‘नहीं पुत्र ! अभी से थक जाऊँगी तो...।’’

‘‘नहीं ! धूप बड़ी कष्टदायक है न !’’ भीम को भी अपने प्रश्न की निरर्थकता समझ में आ गई थी, ‘‘आज सूर्य बहुत प्रखर है। सूर्य नहीं, तपन है यह तो।’’
कुन्ती ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह भीम को जानती थी। कुछ और ही था जो उसके मन में उथल-पुथल मचाकर उसे व्याकुल किए हुए था। यह प्रश्न तो उस व्याकुलता को छिपाने के लिए एक आवरण मात्र था। वह यह भी जानती थी कि भीम अपने भावों को अधिक देर तक छिपा नहीं पाएगा। अभी छोड़ी ही देर में वह मन में छिपी प्रत्येक बात उगल देगा।...कुन्ती को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी।
भीम ने दो-तीन बार द्रौपदी पर उचटती हुई दृष्टि डाली और फिर वह उसके निकट चला गया।
‘‘यदि खांडवप्रस्थ का यह प्राचीन प्रासाद सचमुच ही खंडहर निकला अथवा वह उतना भव्य न हुआ जैसा कि कांपिल्य और हस्तिनापुर के प्रासाद हैं तो क्या तुम्हें बहुत कष्ट होगा ?’’ उसने बहुत धीरे-से पूछा।
भीम ने चाहे धीरे-से ही पूछा था, किन्तु उसका स्वर अब भी इतना ऊंचा तो था ही कि कुन्ती उसका एक-एक शब्द स्पष्ट सुन सकती।...तो यह चिंता है भीम की। कुन्ती ने मन-ही-मन सोचा, ‘पत्नी की भावना को लेकर कितना चिन्तित है उसका पुत्र।’...किन्तु कुन्ती को अच्छा लगा...चाहे भीम के प्रश्न में उसका ‘काम’ भी झलक रहा था, किन्तु उसे अपनी पत्नी की सुविधा-असुविधा का ध्यान तो था।...

‘‘मैंने जिसके गलें में वर-माला डाली थी, वह न तो राजा था आर्यपुत्र ! और न ही उसके पास कोई प्रासाद था।’’ द्रौपदी ने सहज भाव से कहा, ‘‘मैंने तो एक भिक्षोपजीवी तपस्वी का वरण किया था।’’
‘‘ओह हाँ !’’ भीम के मुख से अनायास ही निकल गया, ‘‘वह तो मैं भूल ही गया था।’’
कुन्ती यह देख नहीं पाई कि भीम द्रौपदी के उत्तर पर मुग्ध हुआ या नहीं, किन्तु वह स्वयं अपनी पुत्रवधू के इस उत्तर पर मुग्ध हो उठी : सचमुच द्रुपद-कन्या बहुत ही समझदार थी। अपनी राजधानी में आकर वह प्रफुल्लित थी, किन्तु उस राजधानी के स्थान पर एक वन पाकर भी हताश नहीं थी। वह जीवन के उतार-चढ़ाव का सहज ढ़ंग से कर पाएगी। वह प्रत्येक स्थिति में, जीवन के प्रत्येक सुख दु:ख में, अपने पतियों का साथ निभा पाएगी।
भीम के मन की आशंका मिट गई। वह फिर से अपनी सहज प्रफुल्लित मन:स्थिति में लौट आया था।
‘‘तो देवि ! तुम अपने उस पति का, जिसका तुमने वरण किया था, इसलिए तो तिरस्कार नहीं कर दोगी कि अब वह भिक्षोपजीवी तपस्वी नहीं रहा ?’’ भीम ने पुन: द्रौपदी से पूछा
‘‘उन्नति और विकास का अधिकार तो सबको है आर्यपुत्र !’’ द्रौपदी भी जैसे क्रीड़ामय बालिका हो गई थी, ‘‘निर्धन तपस्वी कभी-कभी समृद्ध राज्य का स्वामी भी हो जाता है, जैसे आचार्य द्रोण हो गए हैं।’’

भीम चौंका: यह द्रौपदी का परिहास था या उपालंभ ! आचार्य द्रोण को एक समृद्ध राज्य का स्वामी बनाने के लिए तो पांडव ही निमित्त बने थे।...किन्तु द्रौपदी के चेहरे के भावों से उसके मन की बात जान लेना भीम के लिए सरल नहीं था। वह अपनी सहज उल्लसित मुद्रा में उसकी ओर देखकर जैसे पूछ रही थी, ‘आर्यपुत्र ! आप मेरे उत्तर से संतुष्ट हुए न।’
भीम के मन में एक नया भाव उदित हो रहा था।... उसके जीवन में अब तक बहुत कम नारियाँ आई थीं। सबसे पहले उसने अपनी माँ को जाना था, किन्तु माँ को सदा माँ के रूप में ही देखा था, नारी के रूप में नहीं। माँ को भीम ने कभी अपने अस्तित्व से पृथक नहीं माना। माँ को प्रसन्न करने के लिए, उसका मन जीतने के लिए, उसे स्वयं पर मुग्ध करने के लिए कभी कोई विशिष्ट प्रयत्न करने की इच्छा उसके मन में नहीं जागी थी। माँ और उसकी प्रसन्नता कभी भी पृथक नहीं रही। पता नहीं वह माँ का अंग था अथवा माँ उसका अंग थी, पर यह तो स्पष्ट ही था कि वे एक-दूसरे से बाहर नहीं थे, इसलिए एक-दूसरे को पा लेने के भाव को कोई अस्तित्व ही नहीं था। माँ से वंचित हो जाने के भय से उसका कभी परिचय ही नहीं हुआ।...

वह कुछ समय हिडिंबा के साथ ही रहा था। हिडिंबा मात्र उसके लिए एक स्त्री थी। समय-समय पर उसने उसको सराहा, उससे लगाव का अनुभव किया, उसकी कामना भी की, वह उसके लिए चरम सुख का कारण भी बनी, किंतु उससे वंचित हो जाने के भय ने उसे कभी नहीं सताया। हिडिंबा स्वयं ही उस पर इतना मुग्ध थी कि भीम ने कभी यह सोचा ही नहीं कि उसे मुग्ध करने के लिए भीम को कोई प्रयत्न भी करना है।...किन्तु यह पंचाली...। इसने भीम के मन को कई नए सत्यों और नई परिस्थितियों का साक्षात्कार कराया था।...भीम स्वयं नहीं समझ पा कहा था कि बार-बार क्यों उसके मन में कामना उठती थी कि वह कुछ ऐसा करे कि पंचाली उस पर प्रसन्न हो जाए ? वह क्यों चाहता था कि पंचाली उससे उदासीन न रहे ? क्यों रह-रह कर उसे भय व्याप जाता है कि कहीं उससे रुष्ट न हो जाए ? क्यों वह उसके लिए इतनी कमनीय है और क्यों उसकी अनुकूलता भीम को अपने लिए उपलब्धि लगने लगती है ?...

वे लोग एक द्वार के पास जाकर रुक गए। यह दुर्ग का भीतरी द्वार था और यहीं से मार्ग प्रासाद तक जाता था।
सबकी दृष्टि द्वार की ओर उठी। द्वार असाधारण रूप से ऊँचा था। इतना कि दीर्घाकार गज भी अपने सुसज्जित हौदे के साथ उसमें से आ-जा सके। कपाट किसी साधारण-सी पुरानी लकड़ी के बने हुए थे, और न तो वे असाधारण रूप से दृढ़ दिखाई पड़ते थे, न ही उनमें कला अथवा सौन्दर्य का कोई आकर्षण था। राजद्वार तो वह एकदम नहीं लग रहा था।
युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा कुन्ती और द्रौपदी के चेहरों पर उड़ती-सी एक दृष्टि डाली। उनके चेहरे पर आई हताशा की मलिनता किसी से छुपी नहीं थी। निश्चित रूप से, प्राचीर के समान ही प्रासाद के इस मुख्य-द्वार ने भी सबको निराश ही किया था।

उसने आगे बढ़कर कपाट खोल दिए, किन्तु द्वार में प्रवेश करने के स्थान पर वह एक ओर हटकर खड़ा हो गया, ‘‘बलराम भैया ! सबसे पहले आप कृष्ण के साथ भीतर प्रवेश करें।’’
बलराम शायद सहज भाव से आगे बढ़कर द्वार में प्रवेश कर ही जाते कि कृष्ण ने उनका हाथ बलराम थाम लिया, ‘‘भैया ! प्रासाद में सबसे पहले बुआ के चरम पड़ने चाहिए।’’
बलराम ठिठककर खड़े रह गए।.. पता नहीं क्यों हर बार औचित्य का ध्यान कृष्ण को ही आता है...
कुन्ती ने सबसे पहले भीतर प्रवेश किया और उसके पश्चात् युधिष्ठिर तथा द्रौपदी ने। कृष्ण तथा बलराम शेष पांडवों के साथ भीतर आए। अब सब स्वतंत्र रूप से उस ‘प्रासाद’ को निरख-परख रहे थे। कोई किसी से कुछ भी कह नहीं रहा था किन्तु यह भाव सबके ही मन में था कि यह राजाओं के रहने योग्य प्रासाद नहीं था।...
‘‘यह प्रासाद तो लगता ही नहीं है।’’ अंतत: भीम ने कह ही दिया, ‘‘अधिक से अधिक, यह किसी भूस्वामी की पुरानी हवेली भर हो सकती है।’’

‘‘मुझे भी लगता है कि यह मूल प्रासाद है ही नहीं।’’ कृष्ण ने जैसे आत्मलीनता की स्थिति में कहा, ‘‘कौरवों द्वारा राजधानी का त्याग कर दिए जाने पर प्रासाद को देखने वाला कोई नहीं रहा होगा। उसे कुछ वर्ष, धूप और वायु ने नष्ट किया होगा और कुछ यमुना के जल ने। यह भवन तो बाद के किसी राजपुरुष अथवा कौरवों द्वारा नियुक्त किसी प्रशासक भूस्वामी ने ही बनवाया होगा।’’
‘‘किन्तु केशव ! कहीं-न-कहीं उस प्रासाद के ध्वंसावशेष तो होंगे।’’ अर्जुन ने प्रतिकार किया।
‘‘संभव है कि खोजने पर कुछ मिल जाए।’’ कृष्ण ने उत्तर दिया, ‘‘किन्तु मुझे विश्वास है कि आस-पास के ग्रामों तथा बस्तियों में रहने वाले लोगों ने कोई रक्षक न देखकर उस प्रासाद की ईंट-ईंट निकालकर अपने घरों में लगा ली होगी।’’
‘‘हमारी प्रजा चोर है क्या ?’’ नकुल के स्वर में हल्का-सा आक्रोश था।

‘‘चोर भी हैं ही।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘किन्तु सामान्य प्रजा तो उसे व्यर्थ का पड़ा मलवा समझकर उठा ले गई होगी। उन्होंने मान लिया होगा कि वे उस वस्तु का उपयोग कर रहे हैं, जिसे राजा व्यर्थ ही नष्ट कर रहा था।’’
‘‘तुम लोग किन विवादों में उलझ गए हो।’’ सहसा कुन्ती ने कही, ‘‘पहले तो यह निश्चय करो कि हमें ठहरना कहाँ है-शिविर में अथवा यहाँ-इस प्रासाद अथवा हवेली में, जो कुछ भी यह है ?’’
‘‘हाँ ! माँ ठीक कह रही है।’’ युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘यात्रा से माँ भी थक गईं होंगी और पंचाली भी। हमें पहले ठहरने की व्यवस्था करनी चाहिए।’’

‘‘मैं शिविर की अपेक्षा यहाँ...इस भवन में ठहरना अधिक श्रेयस्कर समझूँगी।’’ द्रौपदी ने कहा, ‘‘अब यह हमारा घर है, जैसा भी है। घर के होते हुए हमें शिविर में ठहरने की क्या आवश्यकता है।’’
‘‘पर यह भवन तुम्हारे रहने योग्य नहीं है पंचाली !’’ भीम बोला।
‘‘तो क्या जब तक मेरे रहने योग्य भवन नहीं बनेगा, हम शिविरों में ही रहते रहेंगे ?’’ द्रौपदी ने पूछा।
‘‘कृष्ण ठीक कह रही है।’’ कृष्ण ने द्रौपदी का पक्ष लिया, ‘‘भवन को घर तो वहीं बनाएगी, भवन चाहे जैसा भी हो। अभी तो हमें कृष्णा की इच्छा देखते हुए इसी भवन को सुविधानुसार अपना आवास बना लेना चाहिए, बाद में चाहे मध्यम हस्तिनापुर नगर के बराबर का एक प्रासाद बनवाकर पांचाली को भेंट कर दें।’’
‘‘प्रासाद ही क्यों, मेरी इच्छा तो एक पूरा नगर बसाने की है, जिसके चारो ओर हमारा साम्राज्य विकसित होगा। कौरवों का साम्राज्य नहीं, महाराज युधिष्ठिर का साम्राज्य, पांडवों का साम्राज्य।’’ भीम को न जाने क्यों इस समय हिडिंबा याद आ गई। कैसे वे दोनों किसी नदी अथवा झील के तट पर बैठे-बैठे एक सुन्दर नगर बसाने की योजनाएँ बनाया करते थे और वह हिडिंबा को वन छोड़कर उस नगर में बस जाने के लिए प्रेरित किया करता था।

सहसा भीम ने स्वयं को रोका...किस ओर बह रही है उसके विचारों की धारा...यदि पांचाली को रंचमात्र भी आभास हो गया कि भीम को किसी अन्य स्त्री की स्मृति का झोंका भी आया है तो उसकी ईर्ष्याग्नि भड़क उठेगी, चाहे वह स्त्री हिडिंबा ही क्यों न हों।.. उसने ढ़की दृष्टि से द्रौपदी की ओर देखा... नहीं पांचाली को किसी प्रकार का संदेह नहीं हुआ था.. वह तो अपनी सहज मुद्रा में मुस्करा रही थी।
भीम का मन कुछ शांत हुआ।

‘‘यदि अपना प्रासाद भली प्रकार देख लिया हो तो आइए अपनी राजधानी भी देख लीजिए।’’ कृष्ण ने मुस्कुराकर कहा, ‘‘फिर सैनिकों, कर्मचारियों और राजपुरुषों को सारे आदेश एक साथ ही दे दीजिएगा।’’
‘‘अब नगर देखने जाने की क्या आवश्यकता है।’’ बलराम ने पहली बार मुँह खोला, ‘‘प्रजाजन को जब मालूम होगा कि महाराज युधिष्ठिर खांडवप्रस्थ में आ गए हैं, तो वे स्वयं ही दर्शन करने आ जाएँगे।’’
‘‘मैं महाराज युधिष्ठिर के दर्शनों के विषय में कुछ नहीं कह रहा भैया।’’ कृष्ण ने उत्तर दिया, ‘‘मैं तो सुरक्षा की दृष्टि से नगर औहर नगरवासियों को जान लेने की चर्चा कर रहा था।’’
‘‘कृष्ण का ही विचार उत्तम है। यदि हम चाहते है कि प्रजा हमारे अनुकूल रहे, तो हमें भी प्रजा के अनुकूल रहना चाहिए।’’ युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘वैसे भी हम क्षत्रिय राजा हैं। प्रजा का पालन-पोषण हमारा धर्म है। हमारे मन में प्रजा की उपेक्षा हल्का-सा भाव भी नहीं रहना चाहिए।’’
‘‘तो आप जाइए, प्रजा का पालन-पोषण कर आइए।’’ द्रौपदी मुस्कराई, ‘‘मैं यहाँ रसोई जमाती हूँ और आप लोगों के पालन-पोषण का प्रबंध करती हूँ।’’

‘‘यह तो बहुत बड़ा प्रलोभन है कृष्णा !’’ कृष्ण ने उत्तर दिया, ‘‘किन्तु अभी हमें अपने इस लोभ का संवरण करना पड़ेगा। मैं तुम्हें यहाँ अकेली छोड़कर जाने के पक्ष में नहीं हूँ।’’
‘‘क्यों ? मैं अपने यहाँ प्रासाद में हूँ...अपने घर में।’’
‘‘नहीं। अभी तो इस प्रासाद को जानती भी नहीं हो। जाने किस कोठरी में किस जीव ने अपना प्रासाद बना रखा हो।’’ कृष्ण का स्वर दृढ़ एवं निर्णयात्मक था, ‘‘जब तक इस प्रासाद की रक्षा व्यवस्था स्थापित नहीं हो जाती, तब तक राजरानी को इस प्रकार अकेली छोड़कर जाना मैं उचित नहीं मानता।’’
‘‘तो मेरी रक्षा के लिए कुछ प्रहरी छोड़ जाइए।’’ द्रौपदी पुन: मुस्कराई, ‘‘वे लोग देखते रहेगे कि बाहर से आकर कोई मेरे बर्तन न चुरा ले।’’

‘‘यह परिहास का विषय नहीं है सखि !’’ कृष्ण का स्वर गंभीर था, ‘‘हम एक नए स्थान पर अभी-अभी आए हैं, वह स्थान हमें चाहे हमारी राजधानी के रूप में ही क्यों न सौंपा गया हो। हम नहीं जानते कि वह स्थान कैसा है, यहाँ आस-पास कैसे लोग बसते हैं, उनके मन में हमारे प्रति कैसा भाव है।’’ कृष्ण ने थमकर युधिष्ठिर की ओर देखा, ‘‘महाराज ! आपको यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि आपको यहाँ आपके उन्हीं पितृव्य ने भेजा है, जिन्होंने आपको वारणावत भेजा था। तब उन्होंने आपको ‘शिव् भवन’ के रूप में एक अत्यन्त सुन्दर तथा कलात्मक निवास स्थान दिया था। इस बार उन्होंने आपको वंश की प्राचीन राजधानी प्रदान की है, जहाँ कुरु राजवंश का कोई व्यक्ति पीढ़ियों से नहीं रहा।...’’
कृष्ण ने रुककर सब पर एक दृष्टि डाली, उसकी बात का समुचित प्रभाव हुआ था। अब द्रौपदी के चेहरे पर भी वह क्रीड़ाशील हास्य नहीं था। भीम की मुद्रा भी सागर-तट पर सीपियाँ बटोरने वाले उन्मुक्त बालक के समान न रहकर दायित्वपूर्ण सैनिक की-सी हो गई थी।

‘‘तुम लोग माधव की बात क्यों नहीं मानते।’’ कुन्ती ने कुछ चिन्तित आग्रह के साथ कहा, ‘‘वह वयस् में तुमसे छोटा होने पर भी अधिक अनुभवी है। वह कंस और जरासंध के षड्यंत्रों से निपटता रहा है।’’
‘‘ठीक है माँ।’’ अर्जुन धीरे-से बोला, ‘‘हममें से कृष्ण के परामर्श की अवज्ञा तो किसी ने भी नहीं की।’’
‘‘तो फिर चलो, पहले हम अपनी राज-नगरी देख आएँ और प्रजाजन से मिल आएँ।’’ युधिष्ठिर ने अपना निर्णय सुना दिया।
कृष्ण और बलराम आगे-आगे चलते हुए पहाड़ी की दूसरी ओर नीचे उतर गए, जैसे वे इस क्षेत्र में भली-भाँति परिचित हों। दुर्ग की प्राचीर के साथ लगते हुए, मकानों जैसे मनुष्यों के कुछ आवास थे, किन्तु उस बस्ती का क्षेत्रफल तथा मकानों की संख्या तो पांडवों के लिए और भी निराशाजनक थी। कहाँ हस्तिनापुर जैसा सुविशाल, विस्तृत, समृद्ध तथा सघन नगर और कहाँ वनवासियों के दस-पाँच घरों जैसा आवासीय क्षेत्र..यह उनके पूर्वजों की कीर्ति कहने वाली, एक साम्राज्य की राजधानी थी ?..

पर किसी ने कुछ कहा नहीं। वे लोग चुपचाप आगे बढ़ते चले गए।
वे लोग बस्ती के निकट पहुँचे तो विभिन्न मकानों से कुछ घबराए हुए स्त्री-पुरुष बाहर निकल आए। उन्होंने अपने बच्चों को अपने साथ इस प्रकार चिपका रखा था, जैसे उन्हें भय हो कि कहीं कोई उनके बच्चों को उनसे छीन ही न ले।...
भीम शेष लोगों से आगे बढ़ आया और उच्च स्वर में पुकारकर बोला, ‘‘पांडु-पुत्र, महाराज युधिष्ठिर अपनी प्रजा-जन को अभय-दान करते हैं। वे अपनी प्रजा से मिलने तथा उनका कुशल-क्षेम पूछने आये हैं। और जो लोग अपने घरों में हों, उन्हें भी बुला लो। तुम्हें कोई असुविधा हो, राजपुरुषों के व्यवहार में कोई अनुचित बात हो तो निर्भय होकर अपने राजा से कहो। वे तुम्हारी रक्षा करेंगे।’’

युधिष्ठिर ने स्पष्ट देखा कि भीम की घोषणा से उपस्थित लोगों के चेहरे पर प्रसन्नता के स्थान पर आश्चर्य का भाव उभरा था।
‘‘पर महाराज ! यहाँ न तो कोई शासन है, न राजपुरुष।’’ एक वृद्ध ने हताशा-भाव से कहा, ‘‘यह तो मैं अपने जीवन में पहली बार सुन रहा हूँ कि हम किसी राजा की प्रजा हैं। हाँ ! यह मैंने अपने पिता और पितामह से अवश्य सुना था कि कभी यहाँ कौरवों का राज्य हुआ करता था। राजा और राजपुरुष थे, प्रासाद और सभाएँ थीं।...किन्तु मैंने तो अपने जीवन में दस्यु ही देखे हैं, राजपुरुष तो कभी कोई आया ही नहीं।’’

‘‘क्या यहाँ दस्यु बहुत आते हैं ?’’ युधिष्ठिर ने पूछा।
‘‘वे ही आते हैं महाराज।’’ वृद्ध बोला, ‘‘जहाँ न कृषि हो, न व्यापार, न कोई उद्योग...जहाँ कोई अजीविका ही न हो, वहाँ प्रजा से कर उगाहने के लिए कोई राजपुरुष भी आएगा, तो दस्यु का ही रूप धारण करेगा। जो कोई भी ग्राम में आता है, चाहे वह राजपुरुष हो, दस्यु हो, कोई तपस्वी हो अथवा यात्री...उसके ठहरने और खाने-पीने की व्यवस्था तो ग्रामवासियों को ही करनी ही पड़ती है। इतना भी न कर पाओं तो कोई शाप देता है, कोई कशा फटकारने लगता है, तो कोई लूट-पाट मचाने लगता है। उसमें बाधा तो वह खड्ग निकाल लेता है। कुछ नहीं मिलता तो स्त्री-धन और गोधन को ही हाँकने लगता है...।’’

‘‘तो फिर लोग यहाँ कैसे रहते हैं ?’’ अर्जुन ने पूछा।
‘‘रहते ही कितने लोग हैं।’’ वृद्ध ने उत्तर दिया, ‘‘एक-एक कर सब लोग खांडवप्रस्थ का त्याग करते जा रहे हैं। कोई नया घर बसता तो है नहीं, बस पुराने उजड़ रहे हैं।’’
‘‘घर छोड़कर लोग कहाँ जाते हैं ?’’
‘‘जिसके पग जिधर उठ जाते हैं, वह उधर ही चल देता है।’’ वृद्ध बोला, ‘‘कोई दस्यु से बचने के लिए मन में भाग गया है और कोई दस्यु बनने के लिए वन में चला गया है।’’


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